देह में जमने लगी
बहती नदी है
सांस लेने में लगी पूरी सदी है,
चेतना पर धुंध छाई है
माँ तुम्हारी याद आई है।
हम गगन में है
न धरती पर
बस हवाओं में हवाएँ हैं,
धूप की कुछ गुनगुनी किरनें,
ये तुम्हारी ही दुआएँ हैं,
कान जैसे सूर के पद सुन रहे हैं,
किंतु मन के तार सब अवगुन रहे हैं,
गोद में सिर रख ज़रा सो लूँ,
फिर जनमभर रत-जगाई है।
जंगलों से वह बचा लाई
एक बांसती अभय देकर
लोरियाँ हमको सुनाती है
फिर वही रंगीन लय लेकर,
प्यार से सिर पर रखा आँचल तुम्हारा
मैं तभी से युद्ध कोई भी न हारा
झूठ ने ऐसी जगाई आँच
सच ने गर्दन झुकाई है
माँ तुम्हारी याद आई है।
देख तुलसी में नई कोपल
बोझ अब उतरा मेरे सिर से
झर रहे हैं फूल हर सिंगार
मन हरा होने लगा फिर से
द्वार पर शहनाइयाँ
बजने लगी हैं,
छोरियाँ मेहंदी रचा सजने लगी हैं,
आज बिटिया की सगाई है
माँ तुम्हारी याद आई है।
– डा. विष्णु विराट